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{{KKRachna
|रचनाकार=ओमप्रकाश सारस्वत
|संग्रह=दिन गुलाब होने दो / ओमप्रकाश् सारस्वत
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<Poem>

आओ पुरानी रिवायतें
तोड़ें
कुछ नई आदतें
गढ़ें
पुरानी छोड़ें

दूरियों ने
एहसास
निगल लिए
संबंध जो
एक-एक कर
जोड़े थे
बिखर गए
आओ नए सिरे से
कुछ साइतें जोड़ें

हमको तो
नैतिकता मार गई
हमें सचमुच की सज्जनता
हाशिए पे डार गई
आओ कुछ नए सूत्र गढ़ें
कुछ नई व्याख्याएं ढो लें
मछलियाँ
रेत पर नहीं जीती हैं
जिजीविषाएँ
ज़हर
नहीं पीती हैं
आओ
किसी नए सुर के
बोल गुनें
किसी नए राग के हो लें

प्रीत के बगैर
सब
बँजर है
बाहर
जितना सूना है
उससे अधिक
अंदर है
आओ कुछ आँखों से बीजें
कुछ साँसों से बो लें


</poem>
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