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[[Category:कविता कोश]]
 
'''सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" की कवित्ताएँ'''
 
'''1
 
बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु!<br>
पूछेगा सारा गाँव, बंधु!<br><br>
 
यह घाट वही जिस पर हँसकर,<br>
वह कभी नहाती थी धँसकर,<br>
आँखें रह जाती थीं फँसकर,<br>
कँपते थे दोनों पाँव बंधु!<br><br>
 
वह हँसी बहुत कुछ कहती थी, <br>
फिर भी अपने में रहती थी, <br>
सबकी सुनती थी, सहती थी,<br>
देती थी सबमें दाँव, बंधु!<br>
 
'''2
 
<Poem>
नयनों के डोरे लाल गुलाल-भरी खेली होली !
प्रिय-कर-कठिन-उरोज-परस कस कसक मसक गई चोली,
एक वसन रह गई मंद हँस अधर-दशन अनबोली
कली-सी काँटे की तोली !
मधु-ऋतु-रात मधुर अधरों की पी मधुअ सुधबुध खो ली,
खुले अलक मुंद गए पलक-दल श्रम-सुख की हद हो ली--
बनी रति की छवि भोली!
</poem>
 
'''3
 
वर दे, वीणावादिनि वर दे।<br>
प्रिय स्वतंत्र रव, अमृत मंत्र नव भारत में भर दे।<br><br>
 
काट अंध उर के बंधन स्तर<br>
बहा जननि ज्योतिर्मय निर्झर<br>
कलुष भेद तम हर प्रकाश भर<br>
जगमग जग कर दे।<br><br>
 
नव गति नव लय ताल छंद नव<br>
नवल कंठ नव जलद मन्द्र रव<br>
नव नभ के नव विहग वृंद को,<br>
नव पर नव स्वर दे।<br><br>
 
वर दे, वीणावादिनि वर दे।
 
'''4
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