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{{KKRachna
|रचनाकार=मृदुल कीर्ति
|संग्रह = अष्टावक्र गीता / मृदुल कीर्ति
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विरत नित्यानित विवेचक, भोग हैं निरपेक्ष में,
आश्चर्य ! है यद्यपि मुमुक्षु , भय तथापि मोक्ष में.-----८

ज्ञानी जन तो भोग पीडा , भाव में समभाव हैं,
हर्ष क्रोध का आत्मा ,पर कोई भी न प्रभाव है.----९

देह में वैदेह ऋत अर्थों में ,है ज्ञानी वही,
हों भाव सम निंदा प्रसंशा , में कोई अन्तर नहीं . ------१०

अज्ञान जिसका शेष, ऐसा धीर इस संसार को,
मात्र माया मान, तत्पर मृत्यु के सत्कार को.-----११

इच्छा रहित मन मोक्ष में भी, महि महिम महिमा महे,
उस आत्म ज्ञानी से तृप्त जन की, साम्यता किससे अहे.----१२

धीर ज्ञानी जानता है, जगत छल है प्रपंच है,
ग्रहण त्याग से मन परात्पर, न रमे कहीं रंच है.-----१३

वासना के कषाय कल्मष, जिसने अंतस से तजे,
निर्द्वंद दैविक सुख या दुःख, पर शान्ति अंतस में सजे.-----१४
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