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पलाश-वन / केशव

914 bytes added, 19:25, 3 फ़रवरी 2009
[[Category:कविता]]
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एक पंक्ति भी और यह धुन्ध ले जाएगी हमें दूर नहीं बहुत कोई दीवार दूर कि छू न सकेंकुछ मत कहो एक-दूसरे को रहने दो आर-पारतमाम दुनिया अपने-अपने अकेलेपन को लाँघ चल सकते हैं एक विन्दु -दूसरे के अकेलेपन में जैसे पार कर लेती है गिलहरी महीन तार पर दो छोरों के बीच की भांति स्थिर दूरी
बहने दो एक-दूसरे के बीच इस संगीत स्मृति है कबूतर की तरह फड़फ़ड़ाती और है इच्छा कंगूरों परधूप की तरह अलसाती ख़िड़की खोलकर हम झाँकते हैं जंगल में डूबी हुई नदी और जंगल की फुनगियों पर टँके आसमान को क्या पता पर समूचा विस्तार उग आए कौन सा पल सिमटकर स्पर्शों को भीतर कहीं भोर की घण्टियों की तरह टुनटुनाता है  पाँखुरी-पाँखुरीबन जाती है तब घाट में पगलाई पुकार और धुन्ध अचानक एक सुलगते हुए पलाश-वन में अनकहा कहने दो तब्दील हो जाती है </Poem>
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