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द्वार / तेज राम शर्मा

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<poem>
द्वार एक चौखट है
अंदर और बाहर
खुलने वाले दो पल्ले
चौखट छोटी-बड़ी
कच्ची-पक्की भी हो सकती है

द्वार अंदर बाहर दोनों ओर से
बंद हो सकता है
द्वार पर दस्तक देते रहो
कि भीतर कोई है?

कुछ द्वार गोबर लीपे होते हैं
तो कुछ नक्काशीदार
कि द्वार पर ही ठिठक जाओ
कुछ तो लखनऊ के भूल-भुलैया जैसे

जब द्वार नहीं था
तो बाहर-भीतर कुछ भी नहीं था
आदि मानव डरा-डरा रहता होगा
अब रहता है सात द्वारों के भीतर
द्वार पर होती है एक आँख

बिना द्वार का घर
बिना घर का द्वार
कौन किस का अहंकार
राजमहल का बारह बाई बीस फुट का
बिना जोड़ का भीमकाय देवदारु राजद्वार
द्वार पर घंटी हो
स्वागत चिह्न हो
या बैठा हो दरबान
बाहर और भीतर के बीच
पड़ा रहता है हमेशा एक पर्दा
खुलकर भी अपने आप
बंद होने वाले द्वार
द्वार कि माथे से घिस गई हो देहरी
दस्तक कि देते रहो बार-बार
अटका हूँ मैं
देहरी पर
देहरी द्वार पर।
</poem>
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