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जीवन का मोल / तेज राम शर्मा

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<poem>
इस निर्जन में भी
गंध की टोह लेतीं
मधुमक्खियाँ भिनभिना रही हैं
फूलों के गुच्छों पर

पत्तों के झुरमुटों बीच
एक किरण झांक कर
आँख मिचौनी खेलती है मेरे साथ

मेरे तलवों को
गुदगुदा कर
लहरों तले
छुप जाती है रेत

बहुत भोर में
देवदार की टहनियों बीच छुपी हिम कस्तूरिका
एक सुरीला-सा राग गाकर
जगा जाती है
कोई स्मृति
शहद की बूँद-सी
मुँह में घुल जाती है

यदि हवा में हो
पराग सी महक
किरण-सी चाहत भरी हो आँख
पोर-पोर गुदगुदाती हो लहर
भोर में पक्षी गाते हों भैरवी
शहद-सा स्वाद हो मुँह में
तो कौन नहीं चुकाएगा
जीने का मोल।
</poem>
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