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पत्थर / श्रीनिवास श्रीकांत

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<Poem>
पत्थरों में रहते
वे बन गए थे पत्थर

पत्थरों की तरह चलते
पत्थरों की तरह सोचते
जब वे सोते
तो पत्थरों की तरह
उनकी जाग भी थी
सोते हुए पत्थरों की जाग

पहले वे
कभी नहीं थे वैसे
उनका रहन-सहन
चाल-चलन
सब था आदमियों की तरह

हंसते तो लगता
हंस रहे हैं आदमी
और जब रोते
सिसकता आकाश
घर के कोने
बस्तियों की बस्तियाँ

अब न कोई माँ
गाती है लोरी
न कोई पेशेवर भिखारी
बजाता है खंजड़ी

पत्थर अब बजाते हैं
संगीती महफिलों में
पत्थरों के तानपूरे
पत्थरों के चमड़े में कसे
पत्थरों के तबले मृदंग
गाते हैं पत्थर राग
जिससे निकलती हैं
पथरीली सरगमें

पत्थरों की डंडियों पर
पत्थरों की झंडियां लिए
कुछ पत्थर अलाप रहे
पत्थर नारे
घोषणाएँ कर रहे
पत्थर दलों के बहुरंगी लोग
जिन्हें सुन रही
पत्थर हुई प्रजा
</poem>
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