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नियति / श्रीनिवास श्रीकांत

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<Poem>
ज़मीन
आसमान
और समुद्र
चाँद
सूरज और सितारे
कितनी निष्कपट थी
तुम्हारी आस्था
वर्जित था तुम्हारे लिये
अल्लाह की मूर्तियां बनाना
तुम उसे देखते रहे जल्वगर
सात आसमानों में
एक बेतसवीरी कल्पना लोक था शायद
तुम्हारी दीनेइलाही दास्तानों में
तुमने भोगी थी एक संस्कृति
रेत के पठारों में
जिस ओर खींचता रहा तुम्हें
नियति का दृश्य चुम्बक
तुम खिंचे चले गये
अपने-अपने खेड़ों में
निरीह मृग-झुण्ड की तरह
क्षितिजान्त
मरू की ओर
मरीचिकाओं के पीछे-पीछे
जिनका न हुआ
कभी कोई अन्त
बारहा समझाया तुम्हें
आसमानी बाबा ने
कि उसकी यह सृष्टि
है धुंधुआयी गोल-गोल
दिशा हीन विस्तारों ने
शायद छीन ली
तुम्हारी आँखों की बिनाई
तुम्हारा दिशाज्ञान
पर तुम नहीं टोह पाए
रेतीले चक्रवात
भटकाते रहे तुम्हें
और इस तरह
बीतते गये
दिन पर दिन
साल पर साल
सदियों पर सदियां
आसमान वही है
वही है समुद्र
ज़मीन भी वही
पर अल्लाह और अपने बीच
मध्यस्थ खड़े मसीहा को
खो दिया है तुमने
वक्त के बहाव में
अब न वह बोलता है
पहाड़ों के पार्श्व से
और न चिनार के दरख़्तों में
वह देता है दिखाई
महसूस करो
कहाँ है तुम्हारा वतन
कौन सी है तुम्हारी हवा
कौन सा पानी
कहाँ गये वे
जिनके संग आये थे तुम
आक्रामक आँधियों के साथ
मिट्टी की सुगन्ध
अनाज
और जमीन की खोज में

इकहरा सम्वाद नहीं करती रहती
कोई संस्कृति युगान्तर
वह होती है बहुमुख समन्वयी
बर्बर जातीय जननिक खसलतें
करती रहे कितना भी
उसे तोड़ने की कोशिश
मगर कालानतर वह
जुड़़ती है बार-बार
पिता इब्राहीम ने
पढ़ाया था तुम्हें एक सबक
कर्बला का
रहस्यमय
अनन्त कर्बला
और तब आसमान
और जमीन के बीच
तुम्ही थे एक दरख़्त
ईश्वरीय ऊर्जा से गतिमय
मगर तुम उलझ गये
अपने 'स्व' में
बनाते रहे
अपने अलग-अलग परिवार
और नहीं हुए
कभी एकमय
पैगम्बर ने भी
देव भाषा में तुम्हें
बताया था
कर्बला का विधि-विधान
मालिक के बन्दों की
खोल दी थीं उन्होंने
सभी बन्द अर्गलाएं
जिन्हें अपने अन्दर बन्द लेकर ही
पैदा हुए थे तुम
परीक्षा थी वह उल्लाहताला की
वे बर्बर उनहें खोलें स्वयं और देखें
कि उनके अन्दर की कोठरियों में ही कहीं
वे हैं विराजमान
सातों आसमानों को सम्भालते
अपने प्रभामण्डल में प्रतिबिम्बित
नहीं देखा
सदअफसोस
नहीं देखा तुमने उन्हें
कहीं धूप की चमक
बादल की गरज
या सुर्मई सन्ध्या में
जब भेड़ों के रेवड़
और ऊंटों के
सुदूर काफिले
उनकी दी हुई
तुम्हारी पनाहगाहों में
थकान से श्लथ
और भूख से परेशान
क्योंकि
रेत के विस्तारों में
नहीं मिलता था
दिन भर उन्हें चारा
होता था महज हरियालियों का भ्रम
काफिलावर व गड़रिये
जानते हैं सब-कुछ
पर कह नहीं पाए
चलते रहते हैं रेवड़ों के साथ
दाना,पानी,नमक की खोज में
मंजिल दर मंजिल
तुम मानते हो क्या
कि तुम हो हवा
जो खेजती है मंजिल-दर-मंजिल
अपना अन्तिम विसर्जन बिन्दु
टिकाव नहीं होता उस बैरिन चंचला में
बेशक वह देती है
अच्छी-बुरी रूहों को गति
कदमों को चाल
और दिलो का सुकून।
</poem>
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