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17:56, 5 फ़रवरी 2009
सिर्फ़ पीठ देख सकते हो।
क्रमशःऔर सहसा मैंने पाया कि मैं खुद अपने सवालों केसामने खड़ा हूँ औरउस मुहावरे को समझ गया हूँजो आज़ादी और गांधी के नाम पर चल रहा हैजिससे न भूख मिट रही है, न मौसमबदल रहा है।लोग बिलबिला रहे हैं (पेड़ों को नंगा करते हुए)पत्ते और छालखा रहे हैंमर रहे हैं, दानकर रहे हैं।जलसों-जुलूसों में भीड़ की पूरी ईमानदारी सेहिस्सा ले रहे हैं औरअकाल को सोहर की तरह गा रहे हैं।झुलसे हुए चेहरों पर कोई चेतावनी नहीं है। मैंने जब उनसे कहा कि देश शासन और राशन...उन्होंने मुझे टोक दिया है।अक्सर ये मुझे अपराध के असली मुकाम परअँगुली रखने से मना करते हैं।जिनका आधे से ज़्यादा शरीरभेड़ियों ने खा लिया हैवे इस जंगल की सराहना करते हैं –'भारतवर्ष नदियों का देश है।' बेशक यह ख्याल ही उनका हत्यारा है।यह दूसरी बात है कि इस बारउन्हें पानी ने मारा है। मगर वे हैं कि असलियत नहीं समझते।अनाज में छिपे उस आदमी की नीयतनहीं समझतेजो पूरे समुदाय सेअपनी गिज़ा वसूल करता है –कभी 'गाय' सेकभी 'हाथ' से 'यह सब कैसे होता है' मैं उसे समझाता हूँमैं उन्हें समझाता हूँ –यह कौनसा प्रजातान्त्रिक नुस्खा हैकि जिस उम्र मेंमेरी माँ का चेहराझुर्रियों की झोली बन गया हैउसी उम्र की मेरी पड़ौस की महिलाके चेहरे परमेरी प्रेमिका के चेहरे-सालोच है। ले चुपचाप सुनते हैं।उनकी आँखों में विरक्ति है :पछतावा है;संकोच हैया क्या है कुछ पता नहीं चलता।वे इस कदर पस्त हैं : कि तटस्थ हैं।और मैं सोचने लगता हूँ कि इस देश मेंएकता युद्ध की और दयाअकाल की पूंजी है।क्रान्ति –यहाँ के असंग लोगों के लिएकिसी अबोध बच्चे के –हाथों की जूजी है।
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