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{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=रेखा
|संग्रह=चिंदी-चिंदी सुख / रेखा
}}
<poem>
क्या तुमने जाना है
उस घर का सुख
जिसमें दीवारें नहीं होतीं
होती हैं सिर्फ छत
घर
जो मेरा-हमारा
उसका-तुम्हारा
किसी का नहीं
होता है सिर्फ उसका
जो बहाव से हटकर
चाहे उसे देखना बहता हुआ
घर
जो किसी आघात के विरुद्ध
दीवारों का आरक्षण नहीं
काँपते-सुलगते बरसते-ठिठुरते
निरीह क्षण के माथे पर
स्नेहिल छाया है
घर
जहाँ न दरवाजे हैं
न चौखटें
जो आकाश और आकाश के बीच
एक खुला वातायन है
जहाँ नहीं टाँगता कोई
अपने नाम की तख़्ती
कोई छोड़ नहीं जाता
अस्तित्व की गंध
जिसमें आने से पहले
रोकती नहीं कोई दहलीज़
टोकता नहीं कोई दरवाजा
एक थका हुआ आहत क्षण
हाथ पकड़
ले आता है चुपचाप यहाँ
फिर कर देता है सुपुर्द
उस लंबे सफर के
बहुत लंबी है
हमारे फर्जों की फेहरिस्त
हर मोड़ पर
खड़े हैं हमारे दावेदार
बहुत प्रबल हैं दीवारों का आरक्षण
बहुत पेचीदा है
उस बस्ती का व्यूह
पहुँचना है जहां हमें साँझ ढलने तक
इससे पहले कि
दरवाज़े देखकर
ललचा उठें हम या
दीवारों का आरक्षण
बन जाए उम्रकैद
मिल बैठो पलभर
इस पल के उड़नखटोले में
साँस-साँस पी लो
हवा के कुछ साझे घूँट
बाँट सकते नहीं हम
दीवारों में कैद
अपने मुहरबन्द सुख
बाँट सकते हैं फिर भी
इस छत का नन्हा सा सुख
हवा घर में
पल भर का सुख।
</poem>
{{KKRachna
|रचनाकार=रेखा
|संग्रह=चिंदी-चिंदी सुख / रेखा
}}
<poem>
क्या तुमने जाना है
उस घर का सुख
जिसमें दीवारें नहीं होतीं
होती हैं सिर्फ छत
घर
जो मेरा-हमारा
उसका-तुम्हारा
किसी का नहीं
होता है सिर्फ उसका
जो बहाव से हटकर
चाहे उसे देखना बहता हुआ
घर
जो किसी आघात के विरुद्ध
दीवारों का आरक्षण नहीं
काँपते-सुलगते बरसते-ठिठुरते
निरीह क्षण के माथे पर
स्नेहिल छाया है
घर
जहाँ न दरवाजे हैं
न चौखटें
जो आकाश और आकाश के बीच
एक खुला वातायन है
जहाँ नहीं टाँगता कोई
अपने नाम की तख़्ती
कोई छोड़ नहीं जाता
अस्तित्व की गंध
जिसमें आने से पहले
रोकती नहीं कोई दहलीज़
टोकता नहीं कोई दरवाजा
एक थका हुआ आहत क्षण
हाथ पकड़
ले आता है चुपचाप यहाँ
फिर कर देता है सुपुर्द
उस लंबे सफर के
बहुत लंबी है
हमारे फर्जों की फेहरिस्त
हर मोड़ पर
खड़े हैं हमारे दावेदार
बहुत प्रबल हैं दीवारों का आरक्षण
बहुत पेचीदा है
उस बस्ती का व्यूह
पहुँचना है जहां हमें साँझ ढलने तक
इससे पहले कि
दरवाज़े देखकर
ललचा उठें हम या
दीवारों का आरक्षण
बन जाए उम्रकैद
मिल बैठो पलभर
इस पल के उड़नखटोले में
साँस-साँस पी लो
हवा के कुछ साझे घूँट
बाँट सकते नहीं हम
दीवारों में कैद
अपने मुहरबन्द सुख
बाँट सकते हैं फिर भी
इस छत का नन्हा सा सुख
हवा घर में
पल भर का सुख।
</poem>