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आज फिर / रेखा

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आज फिर
लहूलुहान मेरे घर का
पश्चिमी आँगन

अभी-अभी
हाथों से उछलकर
गोल-गुलाल सूरज ने
पसलियों में भोंकली है
वही पुरानी
पहाड़ी कटार
छुपी रही जो दिन-भर
बरसाती धुंध के
लबादे में
वाश-बेसिन में
पसार दिये हैं
अपने हल्दी-पुते हाथ
धुल पाएंगे क्या
हाथों से कभी
सूरज की हत्या के
बाकी निशान?
ला पटकेगी
जवाब देही के कटघरे में
सुनो-
मत दो मुझे दिन की हत्या का दोष
मैंने तो रिसते दिन को
पिलाना चाहा था
बेहोशी की दवा
सुलाना चाहा था
भुलावे की लोरियाँ गाकर
यह तो चैतन्य था दर्द का
बींध लाया उसे
इस छोर तक

क्या हर दिन ऐसा होगा?
बंद रहेंगे तमाम दरवाजे औ’
खिड़कियाँ
डोलती रहूँगी
आहत दिन की परिचर्चा में
हर शाम झोंककर
आँखों में धूल

उछलते रहेंगे सलोने सूरज
उसी पुरानी कटार की तरफ

हर रात
ला पटकेगी
जवाब देही के कटघरे में
औ’ ढूंढतीँ रहूँगी
हल्दी-पुते हाथों में
सूरज की हत्या के
बाकी निशान।
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