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कहाँ जाता है रास्ता / केशव

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<poem>
यह रास्ता कहाँ जाता है
पता नहीं
हलाँकि जाता है हर रास्ता
कहीं न कहीं
जैसे जन्म
मृत्यु के दरवाज़े पर
एक सर्वव्यापी दस्तक
जैसे ज़ख़्म
पीड़ा के पास
फसलें
संसार से होकर
धरती के पास
जैसे कोई लौटता है
घर
जीवन की गलियों से
अपनी बची-खुची
पहचान के पास
जैसे समुद्र
रहता है
जीवन की आँख में
एक उम्र
आँख से टपकते ही जिसे
समुद्र
समो लेने को तत्पर
कहते हैं वे
लेकिन प्रभु की आड़ लेकर
धड़ पर रखे हुए सिर
सुनते नतमस्तक
करीब से करीबतर होता
दिखता उन्हें अपना निठार
उस पल वे होते हैं
एक खोखल
ईश्वर से खाली
संसार से भी

वे चाहते हैं
अपने एक निठार से
तुरंत मुक्ति
जैसे चट्टानों पर पछाड़ खाती नदी
क्योंकि बिना तैयारी के
निठार में
साँस लेना भी दूभर
मिलता उन्हें वरदान
संसार से मुक्ति के बहाने
फिर एक संसार

सृष्टि का सब कुछ
लौटता है
अपने उत्स की ओर
आखिरकार
नहीं लौटता तो बस
यह रास्ता
पहुँचकर कहीं ।
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