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{{KKRachna
|रचनाकार=रेखा
|संग्रह=|संग्रह=चिन्दी-चिन्दी सुख / रेखा
}}
<poem>
द्वार पर
किसी औघड़ की अलख जैसी
गूंजती है
जंगल में रेल की पुकार
क्षण-भर सिहर उठे
पत्तों की तरह
काँप उठता है
कढ़ाही में गृहस्थन का कलछुल
फिर आँख झपकते
जग के कोलाहल में
खो जाती है
औघड़ की वैरागी अलख
सुरंग में खो गई
रेल की तरह
</poem>
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|संग्रह=|संग्रह=चिन्दी-चिन्दी सुख / रेखा
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द्वार पर
किसी औघड़ की अलख जैसी
गूंजती है
जंगल में रेल की पुकार
क्षण-भर सिहर उठे
पत्तों की तरह
काँप उठता है
कढ़ाही में गृहस्थन का कलछुल
फिर आँख झपकते
जग के कोलाहल में
खो जाती है
औघड़ की वैरागी अलख
सुरंग में खो गई
रेल की तरह
</poem>