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आहटें / रेखा

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पिता-भाई
मामा-चाचा
सभी ने डोली उतार
विदा दी थी जहां
उसी पड़ाव पर उतारना
गाड़ी वाले भइया
बीस साल बीते
लौटी हूं पीहर
तब तो सड़क एक ही थी
पूरब में देस था
पश्चिम में परदेस
कैसा अंधेर है भाई
हर पड़ाव बन गया चौराहा
भूलने लगी हूं मैं
अपने ही घर की दिशा
कोई गले लगकर नहीं पूछता
राज़ी तो हो बेटी
जवांई बाबू नहीं आए?
कंधे से कंधा भिड़ाए
भाग रही है भीड़
सभी चेहरे
नये और जवान
काया पलट हो गई क्या सबकी
या बिलों में घुस गये
वे लोग
ये नन्हें बच्चे
जिनसे पूछा है मैंने
बड़ी चौकी का पता
क्यों घूरते हैं ऐसे
जैसे हूँ नहीं इनमें से
किसी के बाप की बुआ
कोई बहिन जी आई हैं
कहीं से उगाहने
अनाथालय का चंदा
अरे बेटा!
दादी को खबर करो
गौरी जीजी आई हैं
चली आओ बेटी
आँखों में उतरा है
जब से मोतिया बिंद
खो गई है पहचान
बस आहट से पहचान लेती हूं
मैं भी तो लौटी हूं, अम्मा
अतीत की एक आहट-सी
आहटें ढूंढ़ रही हूं
वैसे तो आंखों में
नहीं बसी कभी कोई पहचान


</poem>
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