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|रचनाकार=ज़ौक़
}}
[[category: ग़ज़ल]]

<poem>
जान के जी में सदा जीने का ही अरमाँ रहा
दिल को भी देखा किये यह भी परेशाँ ही रहा

कब लिबासे-दुनयवी<ref>सांसारिक आवरण</ref> में छूपते हैं रौशन-ज़मीर
ख़ानाए-फ़ानूस<ref>फ़ानूस का घर</ref> में भी शोला उरियाँ ही रहा

आदमीयत और शै है, इल्म है कुछ और शै
कितना तोते को पढ़ाया पर वो हैवाँ ही रहा

मुद्दतों दिल और पैकाँ<ref>तीर</ref> दोनों सीने में रहे
आख़िरश<ref>अंत में</ref> दिल बह गया ख़ूँ होके, पैकाँ ही रहा

दीनो-ईमाँ ढूँढ़ता है 'ज़ौक़' क्या इस वक़्त में
अब न कुछ दीं ही रहा बाक़ी न ईमाँ ही रहा

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</poem>