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{{KKRachna
|रचनाकार=हेमंत जोशी
}}
<poem>
'''पिता'''
रात के अंतिम पहर में
नींद के बीहड़ से मीलों दूर
घूमने निकलता हूँ जब
अपने ही भीतर पाता हूँ तुम्हें
किसी बंद दरवाज़े सा
झांकने पर भीतर
दीखता है तुम्हारा रक्त रंजित ललाट
तुम वह नहीं थे जो हो
लौट आता हूँ सहम कर
न चाहते हुए भी तुमने
व्यवस्था को गहा
लड़ते रहे
सब कुछ सहा
जो कुछ रहा
मेरे भीतर
बंद दरवाज़े के पीछे
तुम्हारा रक्त रंजित ललाट।
मैं नहीं ढो सकता पिता
तुम्हारी तरह
इस चरमराते तंत्र को
ब्राह्मणत्व और आधुनिकता की खिचड़ी को
मैने आधुनिकता चुनी
बंद दरवाज़े के पीछे
तुम्हारी चीख सुनी।
रुको पिता रुको
मत बनो मेरे पथ-प्रदर्शक
खोजने दो अपनी राह स्वयं ही
हाँ! रातों में
नींद के बीहड़ से दूर
लौट आउँगा तुम्हारे पास
बैठेंगे अलाव के आस-पास
खोलेंगे अपनी-अपनी पोटली
तौलेंगे अपने-अपने अनुभव
गिनेंगे अपने-अपने हिस्से के काँटे।
और फिर एक दिन
दोनों पोटलियाँ सरका दूँगा
समय की सकरी गली में
कोई शायद उनमें डाले
रंग-बिरंगे फूल खुशबू वाले।
</poem>
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|रचनाकार=हेमंत जोशी
}}
<poem>
'''पिता'''
रात के अंतिम पहर में
नींद के बीहड़ से मीलों दूर
घूमने निकलता हूँ जब
अपने ही भीतर पाता हूँ तुम्हें
किसी बंद दरवाज़े सा
झांकने पर भीतर
दीखता है तुम्हारा रक्त रंजित ललाट
तुम वह नहीं थे जो हो
लौट आता हूँ सहम कर
न चाहते हुए भी तुमने
व्यवस्था को गहा
लड़ते रहे
सब कुछ सहा
जो कुछ रहा
मेरे भीतर
बंद दरवाज़े के पीछे
तुम्हारा रक्त रंजित ललाट।
मैं नहीं ढो सकता पिता
तुम्हारी तरह
इस चरमराते तंत्र को
ब्राह्मणत्व और आधुनिकता की खिचड़ी को
मैने आधुनिकता चुनी
बंद दरवाज़े के पीछे
तुम्हारी चीख सुनी।
रुको पिता रुको
मत बनो मेरे पथ-प्रदर्शक
खोजने दो अपनी राह स्वयं ही
हाँ! रातों में
नींद के बीहड़ से दूर
लौट आउँगा तुम्हारे पास
बैठेंगे अलाव के आस-पास
खोलेंगे अपनी-अपनी पोटली
तौलेंगे अपने-अपने अनुभव
गिनेंगे अपने-अपने हिस्से के काँटे।
और फिर एक दिन
दोनों पोटलियाँ सरका दूँगा
समय की सकरी गली में
कोई शायद उनमें डाले
रंग-बिरंगे फूल खुशबू वाले।
</poem>