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{{KKRachna
|रचनाकार=आलोक श्रीवास्तव-२
|संग्रह=वेरा, उन सपनों की कथा कहो! / आलोक श्रीवास्तव-२
}}
<poemPoem>  
उठो प्रिया, उठो
चांद उग आया है
उठो ख़्वाब से
उठो नींद से
उठो हंसी हँसी और आंसू आँसू के बीच से
यह चांद की रात है
यह ख़यालों के तामीर की रात
दुख की सेज से उठो
लहू तो आयेगा तलवों में
पर तुमको पांवोंपाँवों-पांवों पाँवों चलना ही होगा
तुम्हें बहुत पहले
किस हाट-बाज़ार में थीं
पता नहीं किसने तुमसे कहा था
लाल आंचल आँचल का परचम बना लेने को पता नहीं कहां कहाँ तुम
अग्नि के काष्ठ बीनती रहीं ....
सह्याद्रि और विंध्य के पर्वत-पथों पर
आल्पस और हिंद्कुश की घाटियों में
तुम्हारी लोरियांलोरियाँ, तुम्हारी सिसकियां,
तुम्हारी कराहें, तुम्हारी मनौतियां,
तुम्हारी प्रार्थनायें
फिर कभी हंस सका ?
यांग्सी के जल में
तुमने अपनी हंसी हँसी की परछायीं देखी क्या ?
मानसरोवर पर जो हंस मोती चुगने आते थे
क्या वे तुम्हारे ही आंसू थे ?
कण्व के आश्रम से टेम्स के तट तक
ये किन पांवों पाँवों के निशान हैं ?
तुम्हारा बेटा किस जंगल में पल रहा है ?
हिमालय के भव्य शिखरों शुरु हो कर
उत्तर के मैदानों को लांघती
गंगा जिन जिन गांवों गाँवों से गुज़री है वहां वहां वहाँ वहाँ ठहर कर
ओ ग्राम-पुत्री ! उसने सुने हैं तुम्हारे गीत
तुम्हारा दर्द, तुम्हारी मिन्नतें
गंगा के, रेवा-क्षिप्रा के
कृष्णा के कूलों के उठान पर
भव्य गूंजता गूँजता हुआ गान
गहन सौन्दर्य-स्वप्न माया
गंभीरमुखी !
हांहाँ, तुम्हीं थीं
उस चेतस कवि ने
उस निर्झर की झर झर कंचन-रेखा सुनील में हाथ डुबो
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