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देस की छाँव / सुधा ओम ढींगरा

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<poem>
साजन मोरे नैना भर-भर हैं आवें
देस की याद में छलक-छलक हैं जावें
याद आवे
वो मन्दिर
वो गुरुद्वारा
वो धर्मशाला
वो पुराना पीपल का पेड़
जिस तले बैठ
कच्ची अम्बियाँ थीं खाई
जेठ की भरी दुपहरी में
नंगे बदन
सँकरी गलियों में
दौड़ थी लगाई----

सावन की झड़ी में
तेज फुहारों में
भीग-भीग कर
मन्दिर का दिया था जलाया
हाँ साजन,
मोरे नैना भर-भर हैं आवें
देस की याद में छलक-छलक हैं जावें .


तू काहे निर्मोही है हुआ
देस लौटने का नाम न लिया
गर्मी की चिलचिलाती धूप
सर्दी की ठिठुरन याद है आवे
यहाँ की हीटिंग-कूलिंग न भावे

यहाँ की चुप्पी भी खा जावे
तुझे भाये डालरॅ
मुझे भाये रौनक
तुझे भाये एकल परिवार
मुझे भाये संयुक्त परिवार
इन्ही मतभेदों में
लौट न पाई देस
रह गई परदेस
साजन,
तभी तो मोरे नैना भर-भर हैं आवें
देस की याद में छलक-छलक हैं जावें
छलक-छलक हैं जावें.
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