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कवि: [[उमाकांत मालवीय]]
[[Category: गुजर गया एक और दिन]]
[[Category: उमाकांत मालवीय]]
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गुजर गया एक और दिन,
 
रोज की तरह ।
 
 
 
चुगली औ’ कोरी तारीफ़,
 
बस यही किया ।
 
जोड़े हैं काफिये-रदीफ़
 
कुछ नहीं किया ।
 
तौबा कर आज फिर हुई,
 
झूठ से सुलह ।
 
 
 
याद रहा महज नून-तेल,
 
और कुछ नहीं
 
अफसर के सामने दलेल,
 
नित्य क्रम यही
 
शब्द बचे, अर्थ खो गये,
 
ज्यों मिलन-विरह ।
 
 
 
रह गया न कोई अहसास
 
क्या बुरा-भला
 
छाँछ पर न कोई विश्वास
 
दूध का जला
 
 
कोल्हू की परिधि फाइलें
 
मेज की सतह ।
 
 
 
‘ठकुर सुहाती’ जुड़ी जमात,
 
यहाँ यह मजा ।
 
मुँहदेखी, यदि न करो बात
 
तो मिले सजा ।
 
सिर्फ बधिर, अंधे, गूँगों –
 
के लिए जगह ।
 
 
 
डरा नहीं, आये तूफान,
 
उमस क्या करुँ ?
 
बंधक हैं अहं स्वाभिमान,
 
घुटूँ औ’ मरूँ
 
चर्चाएँ नित अभाव की –
 
शाम औ’ सुबह।
 
 
 
केवल पुंसत्वहीन, क्रोध,
 
और बेबसी ।
 
अपनी सीमाओं का बोध
 
खोखली हँसी
 
झिड़क दिया बेवा माँ को
 
उफ्, बिलावजह ।