भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
}}
<Poem>
ओ छली दुष्यंत
ओ छली दुष्यंत
तुमको तापसी का शाप!
याद आता है तुम्हारा रूप वह
गंधर्व बनकर तुम प्रेयंवदप्रियंवद
जब तपोवन में पधारे, हम न समझे
शब्द जो रस में पगे थे
बहिष्कृत कर दिया
अपने भवन, अपनी सभा से।
तभी से फिर रहे हम भोगते संताप!
अस्तित्व की हत्या,
तुम्हारे नाम के आगे लिखी है