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{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार: [[=तेजेन्द्र शर्मा]][[Category:कविताएँ]]}}[[Category:तेजेन्द्र शर्मा]]<poem>औरत को ज़माने ने बस जिस्म ही माना हैक्या दर्द उसके दिलका कोई नहीं जाना है
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~बाज़ार में बिकती है घरबार में पिसती हैदिन में उसे दुत्कारें, बस रात को पाना है
औरत को ज़माने ने बस जिस्म ही माना मां बाप सदा कहते, धन बेटी पराया है<br>क्या दर्द उसके दिलका कोई नहीं कुछ साल यहां रहके, घर दूजे ही जाना है<br><br>
बाज़ार में बिकती है घरबार में पिसती इक उम्र गुज़र जाती, संग उसके जो शौहर है<br>दिन में उसे दुत्कारेंसहने हैं ज़ुलम उसके, बस रात को पाना जीवन जो बिताना है<br><br>
मां बाप सदा कहतेबंटती कभी पांचों में, धन बेटी पराया है<br>चौथी कभी ख़ुद होतीकुछ साल यहां रहके, घर दूजे यह चीज़ ही जाना रहती है, इन्सान का बाना है<br><br>
इक उम्र गुज़र जाती, संग उसके जो शौहर है<br>सहने हैं ज़ुलम उसके, जीवन जो बिताना है<br><br> बंटती कभी पांचों में, चौथी कभी ख़ुद होती<br>यह चीज़ ही रहती है, इन्सान का बाना है<br><br> बन जाती कभी खेती, हो जाती सती भी है<br>उसकी न चले मर्ज़ी बस इतना फ़साना है<br><br/poem>
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