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नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=आलोक श्रीवास्तव-2 }} <poem> यह कैसा प्रेम है ! कितने म...
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{{KKRachna
|रचनाकार=आलोक श्रीवास्तव-2
}}
<poem>
यह कैसा प्रेम है !
कितने मजबूर हैं मेरे शब्द
और सच कितनी निष्ठुर तुम्हारी आँखें
यह कैसी ऋतु है
कितने चटक खिले हैं पलाश यहाँ
पर कितनी दूर हो तुम
अपने ही जंगल में कहीं खोयी
कितना सुनसान है यह रास्ता मेरे घर का
बहुत निर्जन हैं यहां हवायें
और सच कितनी विभोर अपनी ही दुनिया में तुम!
क्या कभी नहीं समझ सकोगी मेरा कोई भी शब्द
कैसा है यह प्रेम !
जितना ही सघन होता जाता है
उतनी ही दूर कहीं खोती जाती हो तुम...
...और यहां मेरी हथेली में रह जाते हैं
थोड़े से रीते शब्द
थोड़े से झरे पलाश
........
......
....
</poem>
{{KKRachna
|रचनाकार=आलोक श्रीवास्तव-2
}}
<poem>
यह कैसा प्रेम है !
कितने मजबूर हैं मेरे शब्द
और सच कितनी निष्ठुर तुम्हारी आँखें
यह कैसी ऋतु है
कितने चटक खिले हैं पलाश यहाँ
पर कितनी दूर हो तुम
अपने ही जंगल में कहीं खोयी
कितना सुनसान है यह रास्ता मेरे घर का
बहुत निर्जन हैं यहां हवायें
और सच कितनी विभोर अपनी ही दुनिया में तुम!
क्या कभी नहीं समझ सकोगी मेरा कोई भी शब्द
कैसा है यह प्रेम !
जितना ही सघन होता जाता है
उतनी ही दूर कहीं खोती जाती हो तुम...
...और यहां मेरी हथेली में रह जाते हैं
थोड़े से रीते शब्द
थोड़े से झरे पलाश
........
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</poem>