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{{KKRachna
|रचनाकार=कविता वाचक्नवी
}}
<poem>
'''पानी बरसेगा'''


सुनती हूँ - "पानी बरसेगा"
जंगल, नगर, ताल प्यासे हैं
मुरझाया पेड़ों का बाना।
इतने दिन का नागा करती
वर्षा की पायल अकुल हैं
लोहा सारा गला हुआ है
उसको पानी में ढलना है,
सलवट-सलवट कटा हुआ
::::: पैरों के नीचे

पृथ्वी का आँचल पुकारता
पानी-पानी-पानी-पानी।
बादल अपने नियत समय पर
इसको - उसको - सबको - उनको
पानी देंगे
तब आएँगे।

::::: अभी समय
::::: नहीं आया है।
सुनती हूँ -
पानी बरसेगा।
</poem>