| संग्रह= रश्मिरथी / रामधारी सिंह 'दिनकर'
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हो गया पूर्ण अज्ञात वास, पाडंव लौटे वन से सहास,<br>
पावक में कनक-सदृश तप कर,वीरत्व लिए कुछ और प्रखर,<br>
नस-नस में तेज-प्रवाह लिये,<br>
कुछ और नया उत्साह लिये।<br><br>
सच है, विपत्ति जब आती है, कायर को ही दहलाती है,[[रश्मिरथी / द्वितीय सर्ग / भाग 13|<br>शूरमा नहीं विचलित होते, क्षण एक नहीं धीरज खोते,<br>विघ्नों को गले लगाते हैं,<br>काँटों में राह बनाते हैं।<br><br>द्वितीय सर्ग / भाग 13]] |
मुख से न कभी उफ कहते हैं, संकट का चरण न गहते हैं,<br>
जो आ पड़ता सब सहते हैं, उद्योग-निरत नित रहते हैं,<br>
शूलों का मूल नसाने को,<br>
बढ़ खुद विपत्ति पर छाने को।<br><br>
है कौन विघ्न ऐसा जग मेंहो गया पूर्ण अज्ञात वास, टिक सके वीर नर के मग में?<br>खम ठोंक ठेलता है जब नर, पर्वत के जाते पाँव उखड़।<br>मानव जब जोर लगाता है,<br>पत्थर पानी बन जाता है।<br><br>
ण :पाडंव लौटे वन से सहास, पावक में कनक-सदृश तप कर, :वीरत्व लिए कुछ और प्रखर, नस-नस में तेज-प्रवाह लिये, कुछ और नया उत्साह लिये। सच है, विपत्ति जब आती है, :कायर को ही दहलाती है, शूरमा नहीं विचलित होते, :क्षण एक नहीं धीरज खोते, विघ्नों को गले लगाते हैं, काँटों में राह बनाते हैं। मुख से न कभी उफ कहते हैं, :संकट का चरण न गहते हैं, जो आ पड़ता सब सहते हैं, :उद्योग-निरत नित रहते हैं, शूलों का मूल नसाने को, बढ़ खुद विपत्ति पर छाने को। है कौन विघ्न ऐसा जग में, :टिक सके वीर नर के मग में खम ठोंक ठेलता है जब नर, :पर्वत के जाते पाँव उखड़। मानव जब जोर लगाता है, पत्थर पानी बन जाता है। गुण बड़े एक से एक प्रखर, :हैं छिपे मानवों के भीतर,<br> मेंहदी में जैसे लाली हो, :वर्तिका-बीच उजियाली हो।<br> बत्ती जो नहीं जलाता है<br> रोशनी नहीं वह पाता है।<br><br> पीसा जाता जब इक्षु-दण्ड, :झरती रस की धारा अखण्ड, मेंहदी जब सहती है प्रहार, :बनती ललनाओं का सिंगार। जब फूल पिरोये जाते हैं,
पीसा जाता जब इक्षु-दण्ड, झरती रस की धारा अखण्ड,<br>
मेंहदी जब सहती है प्रहार, बनती ललनाओं का सिंगार।<br>
जब फूल पिरोये जाते हैं,<br>
हम उनको गले लगाते हैं।
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