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Kavita Kosh से
तू चन्दा है नील गगन का
मैं पीतल की जलमय थाली!
क्या तूने देखा धारा को
क्यों घबराती पिया मैं तन मन
तेरा जो तुझ पर ही खोते?
तू नीलाभ गगन का स्पन्दन
मैं धूलि हूँ पनघट वाली
तेरी मेरी प्रीत निराली!
हो रूप गुणों से आकर्षित यदि
तेल बिना क्या कभी वर्तिका
जग उजियारा है कर पाती?
दिनकर! तेरे स्नेह स्पर्श बिन
नहीं कली ये खिलने वाली
तेरी मेरी प्रीत निराली!
धरा संजोती जैसे अंकुर
मुझे थेली हथेली में तू रखता
अपनी करुणा से तू ईश्वर
मेरे सब संशय है हरता!
जग अभिनन्दन करता जय का
दोषों पर मेरे तू ढरता!
नहीं मुझे अवलम्बन खुद का
तू ही भरता मेरी प्याली
तेरी मेरी प्रीत निराली!
तू शंकर का तप कठोर
मैं एक कुशा माँ सीता वाली
तेरी मेरी प्रीत निराली!
१० दिसम्बर ०८
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