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{{KKRachna
| रचनाकार=ओमप्रकाश सारस्वत
| संग्रह=शब्दों के संपुट में / ओमप्रकाश सारस्वत
}}
<poem>जब कभी भी
काम का वक्त होता है
वह हथेली को खोल
पढ़ने बैठ जाता है।
मुट्ठी को कस कर----
काम करने की आदत को
वह,मुट्ठी को तोड़ने की
साजिश समझती है।
वह हथेली पर
स्वप्नों की भांति बिखर कर
उच्चावच्च पोरों में
वृहस्पति,शुक्र के
फलादेश गुनती है।
वह स्वास्थ्य रेखा के
समानांतर दौड़कर
आयु के चरमशिखर पर
आरूढ़ होकर
भविष्य की समस्त
सुखद कल्पनाओं को जीवनरेखा के इर्द-गिर्द पाती है
वह हथेली को बन्द करके
सोच के सागर में उतर जाती है,
और कई सुनहली मछलियों का
कल्पित अभ्यास में करती हुई शिकार
मुट्ठी की धरती पर
पटक-पटक कर मारती है
वह मुट्ठी से
अखरोट की तरह
गिरियाँ निकाल कर
फलंवित होना चाहती है
वह मुट्ठी को कस कर
मारती है धरती पर
वह धरती को मुट्ठी में
कस कर बांध लेना चाहती है।
</poem>
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| रचनाकार=ओमप्रकाश सारस्वत
| संग्रह=शब्दों के संपुट में / ओमप्रकाश सारस्वत
}}
<poem>जब कभी भी
काम का वक्त होता है
वह हथेली को खोल
पढ़ने बैठ जाता है।
मुट्ठी को कस कर----
काम करने की आदत को
वह,मुट्ठी को तोड़ने की
साजिश समझती है।
वह हथेली पर
स्वप्नों की भांति बिखर कर
उच्चावच्च पोरों में
वृहस्पति,शुक्र के
फलादेश गुनती है।
वह स्वास्थ्य रेखा के
समानांतर दौड़कर
आयु के चरमशिखर पर
आरूढ़ होकर
भविष्य की समस्त
सुखद कल्पनाओं को जीवनरेखा के इर्द-गिर्द पाती है
वह हथेली को बन्द करके
सोच के सागर में उतर जाती है,
और कई सुनहली मछलियों का
कल्पित अभ्यास में करती हुई शिकार
मुट्ठी की धरती पर
पटक-पटक कर मारती है
वह मुट्ठी से
अखरोट की तरह
गिरियाँ निकाल कर
फलंवित होना चाहती है
वह मुट्ठी को कस कर
मारती है धरती पर
वह धरती को मुट्ठी में
कस कर बांध लेना चाहती है।
</poem>