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| रचनाकार=ओमप्रकाश सारस्वत
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<poem>शिखरों पर
धूप सेक रही है बर्फ,
घाटियों में हवाएँ
मेमनों के शिकार में व्यस्त हैं
(मेमनों की यही नियति है सर्वत्र)।

एक दिन
मौसम की चटखी धूप को देख
खुश हो रही थीं चट्टानें कि अबकी सर्दियों में
वे खूब सेकेंगी बूढ़ी पसलियाँ


यूँ हर साल
बर्फ को पीते-पीते ही
बीत जाती है धूप को सेकेने की उम्र
(उम्र के गणित में
धूप,गुणा का अंक है)

पर चट्टानें रही अनभिज्ञ
कि मौसम इस साल भी
धूप को बेच डालेगा
किसी दक्षिणात्य कुबेत के घर
और उधर सूरज लापरवाह-सा
आकाश के उद्यान में लहराती
किसी अल्हड़ बदली के पल्लू में सिमटा
होते-होते हो जाएगा व्यस्त
(सूरज,खूब जानता है मौके पर
चट्टानों को दगा देना)
इधर कई दिनों बाद
यह बत्सगोत्री चिड़िया
निकली है घौंसले से
यह दिनों-दिन लापता रहने के लिए
पिला रही है सूरज महाजन को
कस-कर डाँट
और उधर एक दादा कौआ
बड़बड़ा रहा है कि
देखो तो! यह चुटकी भर चटका भी
सहस्राक्ष को कैसे दिखा रही है अपनी औकात से बढ़कर आँख।
</poem>
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