भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

फॉल / केशव

4,132 bytes added, 08:33, 22 अगस्त 2009
नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सरोज परमार |संग्रह=समय से भिड़ने के लिये / सरोज प...
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=सरोज परमार
|संग्रह=समय से भिड़ने के लिये / सरोज परमार
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>वक़्त गुज़र जाने पर अब
उम्र के खंडहरों पर बैठ
देखते हो
सुदूर टिमटिमाती हुई रोशनियों जैसा
अतीत

जलते हुए जंगल-सा वर्तमान
हर पल रहता है संग
जिस ओर भी बदलो करवट
हर द्वार के सामने फ़ूटती है
एक सूनी अकेली पगडंडी
और हर खिड़की खुलती है
गहन अंधकार में
जीने की तैयारी के लिये
यह समय
रह गया है कितना छोटा और अर्थहीन
बाकी है सिर्फ अभिनय
या फिर अकेलेपन का
स्वीकार
जिसे भी चाहो अपना लो
झूठ और सच का निर्ण
अब भी कर लो
नहीं तो सारी की सारी यात्रा
एक बिगड़े हुए ज़ख़्म -सी लगेगी
गंधाने
आँखों में सुलगते रहेंगे स्वप्न
और ज़िन्दगी के लाक्षागृह में
किसी खंडित मूर्ति-से
पड़े रह जाओगे
इतिहास होने का सुख भी
दलदल में फंसी चिड़िया को तरह
महज़ ज़िन्दा रहने के एक
व्यर्थ संघर्ष में तब्दील हो जायेगा

किससे कहोगे
ज़िन्दगी के हाथों से फिसल जाने की
कहानी
जबकि अपने ही प्रयत्न
रह जाएंगे
सिसिफस की
अंतहीन अर्थहीनता का बोध
यद्यपि ढ्अलान पर से उतरने में भी
ढूँढी जा सकती है
एक गति
एक लय

मुक्ति कहाँ है पीठ् पर लदी हुई
इस अर्थहीनता से
सिर्फ एक राह है 'अगर है तो'
बिछी हुई सामने
और है उस पर चलते जाना
बिना उम्मीद
बिना किसी आस्था के भी

सच दोस्त
पुल पर से किसी को गिरते देख
अगर देख सके हो तुम भी
अपना गिरना
तो ज़िन्दा रहने के लिए
काफी है इतना ही आधार
मौत की प्रतीक्षा क्यों करते हो
इतनी बेसब्री से
मौत कोई अंत नहीं
किसी भी सिलसिले का

यात्रा है यह
अंतहीन रास्तों की
जो देख सके उसके लिए
गूँगे हैं सभी पल
कंकड़ों की तरह बिखरे हुए
दूर तक

अंत नहीं होता पलों का
होता है उसका
जो वर्तमान को
अपनी बेपेंदी जेबों में रखे
अतीत को
चश्मे की तरह आँखों पर चढ़ाए
भविष्य झाँकता रहता है ।
</poem>
Mover, Uploader
2,672
edits