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{{KKRachna
|रचनाकार=केशव
|संग्रह=अलगाव / केशव
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>यह सब जैसा है उसके वैसा होने से
ऊब गया हूँ मैं
उन्हीं चेहरों से मिलना रोज़
गुज़रना बाज़ार से
जहाँ से उठने वाली गंध
भर देती है मेरी आत्मा में
कोलाहल
चूहों की तरह झाँकते हुए
पीले मकानों वाली खिड़कियों से लोग
झुककर
सड़कों गलियों में से
घटनाएँ बीनते हुए
कुछ नहीं है उनके पास
शून्य में लटकी आँखों के
अतिरिक्त
जिसमें हर तस्वीर उतरती है
बिना परछाईं के
सच तो यह है कि मैं
हर रोज़
इन ठहरे हुए
प्राणहीन दृष्यों मे गुज़रने से
ऊब गया हूँ
</poem>
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|संग्रह=अलगाव / केशव
}}
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<poem>यह सब जैसा है उसके वैसा होने से
ऊब गया हूँ मैं
उन्हीं चेहरों से मिलना रोज़
गुज़रना बाज़ार से
जहाँ से उठने वाली गंध
भर देती है मेरी आत्मा में
कोलाहल
चूहों की तरह झाँकते हुए
पीले मकानों वाली खिड़कियों से लोग
झुककर
सड़कों गलियों में से
घटनाएँ बीनते हुए
कुछ नहीं है उनके पास
शून्य में लटकी आँखों के
अतिरिक्त
जिसमें हर तस्वीर उतरती है
बिना परछाईं के
सच तो यह है कि मैं
हर रोज़
इन ठहरे हुए
प्राणहीन दृष्यों मे गुज़रने से
ऊब गया हूँ
</poem>