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फिर से कहिए / सुदर्शन वशिष्ठ

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|रचनाकार=सुदर्शन वशिष्ठ
|संग्रह=सिंदूरी साँझ और ख़ामोश आदमी / सुदर्शन वशिष्ठ
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<poem>कवि क्यों नहीं होते शायरों की तरह विनम्र सरल!

दाद मिलने पर कहते शायर
ज़र्रा नवाजी है शुक्रिया शुक्रिया
कवि देखते शंकित
यह मज़ाक तो नहीं
हलाकिं कठिन है दूसरे की रचना पर दाद देना
शायर लोग देते हैं।

कवि नहीं करते वाह।
बस हैरानी से तकते हैं
अरे इतनी अच्छी कविता कैसे लिख गया ससुरा
शायर कहते मुकरर.........मुकरर............
फिर से फरमाईये
कवि कहते बहुत हो गया
बस चुप हो जाईये
शायर लोग दोहराते बार-बार
मीर जौक ग़ालिब इकबाल
कह गये ऐसा बेमिसाल
लिखते उन की तर्ज़ पर बार-बार
कवि कोसते
निराला मुक्तिबोध अज्ञेय
क्या लिख गये बेकारा।
शायर लोग याद करते बार-बार
उस्ताद को पीठ पीछे
दोहराते इस्लाह'
कवि खींचते सामने-सामने
उन्हें नीचे और नीचे।
</poem>
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