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|रचनाकार=जोश मलीहाबादी
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मेरी तबाही दिल पर तो रहम खा न सकी <br>जो रौशनी रोशनी में रहे रौशनी रोशनी को पा न सके <br><br>
न जाने आह! कि उन आँसूओं पे क्या गुज़री <br>जो दिल से आँख तक आये मिश्गाँ तक आ न सके <br><br>
रहें ख़ुलूस-ए-मुहब्बत के हादसात जहाँ <br>मुझे तो क्या मेरे नक़्श-ए-क़दम मिटा न सके<br><br>
करेंगे मर के बक़ा-ए-दवाम क्या हासिल <br>जो ज़िंदा रह के मुक़ाम-ए-हयात पा न सके <br><br>
नया ज़माना बनाने चले थे दीवाने <br>नई ज़मीं, नया आसमाँ बना न सके <br><br/poem>