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दीदनी दीदनी१ है नरगिसे - ख़ामोश का तर्ज़े - ख़िताब
गह सवाल अन्दर सवालो - गह जवाब अन्दर जवाब।
काबा-ओ-बुतख़ाना औक़ाफ़े - दिले - आलीजनाब।
राज़ के सेगे में रक्खा था मशीअत मशीअत२ ने जिन्हेंवो हक़ायक़ हक़ायक़३ हो गये मेरी ग़ज़ल में बेनक़ाब।
एक गँजे-बेबहा है, अहले-दिल को उनकी याद
आदमीयों से भरी है, ये भरी दुनिया मगर
आदमी को आदमी होता नहीं है दस्तयाब।
 
साथ ग़ुस्से में न छोड़ा शोख़ियों ने हुस्न का
बरहमी की हर अदा में मुस्कुराता है इताब४।
 
इश्क़ की सरमस्तियों५ का क्या हो अन्दाजा कि इश्क़
सद शराब, अन्दर शराब, अन्दर शराब, अन्दर शराब।
 
इश्क़ पर ऐ दिल कोई क्योंकर लगा सकता है हुक़्म
हम सवाब अन्दर सबाबो - हम अज़ाब अन्दर अज़ाब।
 
नाम रह जाता है वरना दह्र५ में किसको सबात६
आज दुनिया में कहाँ हैं रुस्तमों - अफ़रासियाब।
 
रास आया दह्र को खू़ने - जिगर से सींचना
चेहरा-ए-अफ़ाक७ पर कुछ आ चली है आबो-ताब।
 
इस क़दर रश्क़, ऐ तलबगाराने-सामाने निशात८
इश्क़ के पास इक दिले-पुरसोज़, इक चश्मे-पुर‍आब९।
 
अब इसे कुछ और कहते हैं कि हुस्ने इत्तेफ़ाक
इक नज़र उड़ती हुई-सी कर गयी मुझको ख़राब।
 
एक सन्नाटा अटूट, अक्सर और अक्सर ऐ नदीम
दिल की हर धड़कन में सद ज़ीरो-बमे-चंगो-रबाब।
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
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