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{{KKRachna
|रचनाकार=सुदर्शन वशिष्ठ
|संग्रह=अनकहा / सुदर्शन वशिष्ठ
}}
<poem>सड़क में सौ ग्राम मूँगफली खरीद
खाते अच्छे नहीं लगते अफसर
काजू चबाते मुफ्त की पीते
अच्छे लगते अफसर

अच्छे नहीं लगते अफसर
दिन को दिन कहते
अच्छे नहीं लगते अफसर
एकदम बोल उठते
बस सिर हिलाते अच्छे लगते अफसर।

अच्छे नहीं लगते अफसर फैसला देते
एकदम हाँ या न करते भी
अच्छे नहीं लगते अफसर
अच्छे नहीं लगते अफसर
एकदम फायल निपटाते
देख लेंगे! देख लेंगे!
कहते अच्छे लगते अफसर।

अच्चे नहीं लगते अफसर
समय पर आते
समय पर जाते
अच्छे नहीं लगते काम करते
कुर्सी पर अलसाते अच्छे लगते अफसर।

हर समय हर एक से मिलते
अच्छे नहीं लगते अफसर
दरवाज़े पर जगाए लाल बत्ती
भीतर मसखरी करते अच्छे लगते
अच्छे नहीं लगते अफसर खुद फोन उठाते
खुद दरवाज़ा खोलते
खुद प्रॉब्लम हल करते
खुद चिंता करते
खुद सोचते

दफ़्तर में मीटिंग घर में बाथरूम
में बिज़ी अच्छे लगते हैं।
</poem>
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