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|रचनाकार=सुदर्शन वशिष्ठ
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<poem>
'''एक'''
औरतें आँगन बुहारती हैं
मर्दों के सोये भीतर बुहारना अशकुन है
इसलिए मुँह अँधेरे
औरतें आँगन बुहारती हैं
मर्द सोये रहते हैं भीतर
खर्राटे भरते हुए दिन चढ़े
औरतें आँगन बुहारती हैं

बीती साँझ बरसाती है सूखे पत्तों की फुहार
पूरे आँगन में सो जाते हैं नामरद पीले पत्तों
जिन्हें जगाने के लिए औरतें आँगन बुहारती हैं।

सुबह सवेरे आने वाले अभ्यागत
भीखू-मँगते जो भी
ये न बोलें कि नहीं हुआ साफ
औरत के रहते आँगन
इसलिए औरतें आँगन बुहारती हैं।


'''दो'''

सड़क के किनारे पेड़ से बँधी
मैली चादर से ढकी चारपाई
घर है
औरतें सुबह उठते ही सड़क बुहारती हैं
औरतें आँगन बुहारती हैं।

आँगन हो चाहे मुशतरका
चार घरों का अकेला
या हो आगे बस सड़क
औरतें आँगन बुहारती हैं।
सड़क जिसमें खेलते हैं बच्चे दिन भर
अपने आँगन की तरह
समुँदर टापू या गर्म पिट्ठू
सूखने डाली जाती हैं जहाँ माँगी हुई जिंस
या बच्चों द्वारा माँगा हुआ कचरा
रोज़ हट फिर कर सड़क बुहारती हैं
हाँ, औरतें आँगन बुहारती हैं।

'''तीन'''

आँगन बुहारती औरतों के पैरों में
फटी है बिवाईयाँ
हाथ हो गये हैं चितकबरे
फिर भी वे आँगन बुहारती हैं
पानी में पाले में धूप में धूल में
औरतें आँगन बुहारती हैं।

'''चार'''

आँगन है बहुत लम्बा औरतों का
पूरा खेत,खलिहान आँगन है
पड़ोसन का गलियारा आँगन है
पनघट,जो भी हो,आँगन है
सारी पृथ्वी ही हो जाए आँगन बेशक
औरतें बुहारती हैं
हाँ,औरतें आँगन बुहारती हैं।
महीन से महीन कचरा
देखने की आदत हो गई औरतों को
कूड़ा देखकर बुहारना नियति
इसलिए औरतें आँगन बुहारती हैं।
आदत हो गई है औरतों की झाड़ना बुहारना
इसलिए औरतें आँगन बुहारती हैं।

</poem>
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