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चारु चंद्र की चंचल किरणें,
खेल रहीं थीं हैं जल थल में।स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई थीहै,
अवनि और अम्बर तल में।
पुलक प्रकट करती थी है धरती,हरित तृणों की नोकों नोंकों से।मानो मानों झूम रहे हों रहें हैं तरु भी,
मन्द पवन के झोंकों से।
पंचवटी की छाया में है,
सुन्दर पर्ण कुटीर बना।
जिसके बाहर सम्मुख स्वच्छ शिला पर,
धीर वीर निर्भीक मना।
जाग रहा है यह कौन धनुर्धर,
जब कि भुवन भर सोता है।
भोगी अनुगामी कुसुमायुध योगी सा,
बना दृष्टिगत होता है।
बना हुआ है प्रहरी जिसका,
उस कुटिया कुटीर में क्या धन है।
जिसकी सेवा में रत इसका,
तन है, मन है, जीवन है।
</poem>
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