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{{KKRachna
|रचनाकार=माधव कौशिक
|संग्रह=अंगारों पर नंगे पांव / माधव कौशिक
}}
<poem>क्या बताऊँ दरम्यां अब फासला कोई नहीं।
सामने मंज़िल है लेकिन रास्ता कोई नहीं।

फिर किसी के पाँवों की आहट सुनाई दी मुझे.
घर में पर मेरे अलावा दूसरा कोई नहीं

जायज़ा सूरत का अपनी लें तो आखिर किस तरह,
शहर शीशे का है लेकिन आईना कोई नहीं।

उससे क्या उम्मीद रखे अब कोई बन्दानवाज़,
आदमी जितना है उतना खोखला कोई नहीं।

ज़ेहन में पसरा हुआ है एक रेगिस्तान,
आजकल बरसात में भी भीगता कोई नहीं।

हंसते-हंसते ही हटा दे सबके चेहरों से नकाब,
ऐसा लगता है शहर में सिरफिरा कोई नहीं।

मेरी बस्ती में सभी लोगों को जाने क्या हुआ,
देखते रहते हैं सारे बोलता कोई नहीं।</poem>
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