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|रचनाकार=अकबर इलाहाबादी
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[[Category:ग़ज़ल]]{{KKCatGhazal}}
<poem>
ख़ुशी है सब को कि आप्रेशन में ख़ूब नश्तर <ref>चाकू, काँटा</ref> चल रहा है
किसी को इसकी ख़बर नहीं है मरीज़ का दम निकल रहा है
फ़ना <ref>लुप्त हो जाना</ref> उसी रंग पर है क़ायम, फ़लक वही चाल चल रहा हैशिकस्ता-ओ-मुन्तशिर <ref>टूटा हुआ और बिखरा हुआ</ref> है वह कल, जो आज साँचे में ढल रहा है
यह देखते ही जो कासये-सर<ref>सर का प्याला</ref>, गुरूरे-ग़फ़लत <ref>अज्ञान का घमण्ड</ref> से कल था ममलू<ref>भरा हुआ</ref>
यही बदन नाज़ से पला था जो आज मिट्टी में गल रहा है
समझ हो जिसकी बलीग़ <ref>अर्थपूर्ण</ref> समझे, नज़र हो जिसकी वसीअ <ref>फैला हुआ</ref> देखेअभी तक ख़ाक भी उड़ेगी जहाँ यह क़ुल्जुम <ref>समुद्र</ref> उबल रहा है
कहाँ का शर्क़ी <ref>पूर्वी</ref> कहाँ का ग़र्बी <ref>पश्चिमी</ref> तमाम दुख -सुख है यह मसावी<ref>बराबर क़ौम का उत्थान और पतन</ref>
यहाँ भी एक बामुराद ख़ुश है, वहाँ भी एक ग़म से जल रहा है
मज़ा है स्पीच का डिनर में, ख़बर यह छपती है पॉनियर में
फ़लक की गर्दिश <ref>आसमान का चक्कर या फेरा</ref> के साथ ही साथ काम यारों का चल रहा है
'''शब्दार्थ :
नश्तर= चाकू (यहाँ पर), काँटा;
फ़ना= लुप्त हो जाना;
शिकस्ता-ओ-मुन्तशिर= टूटा हुआ और बिखरा हुआ;
कासये-सर= सर का प्याला;
गुरूरे-गफ़लत= अज्ञान का घमण्ड;
ममलू= भरा हुआ;
बलीग= अर्थपूर्ण;
वसीअ= फैला हुआ
क़ुल्जुम= समुद्र
शर्क़ी= पूर्वी
ग़र्बी= पश्चिमी
मसावी= बराबर क़ौम का उत्थान और पतन
फ़लक की गर्दिश= आसमान का चक्कर या फेरा
</poem>
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