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सपनों की सर्द आह / माधव कौशिक

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<poem>सपनों की सर्द आह पर कुछ भी नहीं लिखा
हमने बदन की चाह पर कुछ भी नहीं लिखा ।

खाली पड़ा है आज भी चाहत का हाशिया
तुमने मेरी चाहत पर कुछ भी नहीं लिखा ।

करते ही जिस गुनाह को जन्नत के दर खुलें
लोगों ने उस गुनाह पर कुछ भी नहीं लिखा ।

तलुवों से रिसकर ख़ून के क़तरे जवां हुए
मंज़िल ने फिर भी राह पर कुछ भी नहीं लिखा ।

दरबारियों को याद हैं क़िस्से कनीज़ के
मौसम ने बादशाह पर कुछ भी नहीं लिखा ।

फूलों के शेर वक़्त से पहले बिखर गए
ख़ुश्बू ने उस निगाह पर कुछ भी नहीं लिखा ।
</poem>
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