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हाथ हैं दोनों सधे-से
गीत प्राणों के रूँधे-से
आैर और उसकी मूठ में, विश्वास
जीवन के बँधे-से
धकधकाती धरिण धरणि थर-थर
उगलता अंगार अम्बर
भुन रहे तलुवे, तपस्वी-सा
जल रहा संसार धू-धू
कर रहा वह वार कह "हँूहूँ"
साथ में समवेदना के
स्वेद-कण पड़ते कभी चू
लहलहाते दूर तरू-गण
ले रहे आश्रय पिथक पथिक जन
सभ्य शिष्ट समाज खस की
मधुरिमा में हैं मगन मन
किस शुभाशा के सहारे?
किस सुवणर् सुवर्ण् भविष्य के हित
यह जवानी बेच डाली?
चल रही उसकी कुदाली
(४)
शांत सुस्िथर सुस्थिर हो गया वह
क्या स्वयं में खो गया वह
हाँफ कर फिर पोंछ मस्तक
आ रही वह खोल झोंटा
एक पुटली, एक लोटा
थँूक थूँक सुरती पोंछ डालाशीघर् शीघ्र अपना होंठ मोठा
एक क्षण पिचके कपोलों में
भूख से, कह बड़बड़ाई
हँस दिया दे एक हँूठाहूँठा
थी बनावट, था न रूठा
याद आई काम की, पकड़ा
खप्प-खप चलने लगी
चिर-संिगनी संगिनी की होड़ वाली
चल रही उसकी कुदाली
खोदता सारी धरा जो
बाहुबल से कर रहा है
इस धरिण धरणि को उवर्रा जो
लाल आँखें, खून पानी
यह प्रलय की ही निशानी
क्या गया वह जान
शोषक-वगर् वर्ग की करतूत काली
चल रही उसकी कुदाली
</poem>
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