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मानों झूम रहें हैं तरु भी,
मन्द पवन के झोंकों से।
 
क्या ही स्वच्छ चाँदनी है यह
है क्या ही निस्तब्ध निशा,
है स्वच्छ-सुमंद गंध वह,
निरानंद है कौन दिशा?
बंद नहीं अब भी चलते हैं
नियति-नटी के कार्य-कलाप,
पर कितने एकान्त भाव से,
कितने शांत और चुपचाप।
 
है बिखेर देती वसुंधरा
मोती सबके सोने पर,
रवि बटोर लेता है उनको
सदा सवेरा होने पर।
और विराम-दायिनी अपनी
संध्या को दे जाता है,
शून्य-श्याम तनु जिससे उसका
नया रूप छलकाता है।
पंचवटी की छाया में है,
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