भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
}}
<poem>
निश्वासों का नीड़ , निशा काबन जाता जब शयनागार,
लुट जाते अभिराम छिन्न
मुक्तावलियों के बन्दनवार,
तब बुझते तारों के नीरव नयनों का यह हाहाकार,
मर्मर का रोदन कहता है ’कितना निष्ठुर है संसार’!
स्वर्ण वर्ण से दिन लिख जाता
जब अपने जीवन की हार,
गोधूली, नभ के आँगन में
देती अगणित दीपक बार,
हँसकर तब उस पार तिमिर का कहता बढ बढ पारावार,
’बीते युग, पर बना हुआ है अब तक मतवाला संसार!’
स्वप्नलोक के फूलों से कर
अपने जीवन का निर्माण,
’अमर हमारा राज्य’ सोचते
हैं जब मेरे पागल प्राण,
आकर तब अज्ञात देश से जाने किसकी मृदु झंकार,
गा जाती है करुण स्वरों में ’कितना पागल है संसार!’
</poem>