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|रचनाकार=मृदुल कीर्ति
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हिय मांही जिनके ज्ञान घनो,
अंतर्मन को अज्ञान मिट्यो .
ज्ञान सों चमकत सूरज सों,
सत, चित आनंद को भान भयो

तद्रूप भये मन बुद्धि हिया.
परब्रह्म सों भाव मिले जिनके,
तिन ज्ञान सों पाप विहीन भये,
पुनि आवागमन भी मिटे तिनके

ज्ञानी जन तौ नर कुंजर में ,
सम भाव धरत सब प्रानिन में.
सम दृष्टि सों देखत सबहिं ,
गौ, श्वानन में चंडालन में

जिन भाव समत्व विशेष हिये,
जग जीत लियौ, जग माहीं जिए.
सम भाव प्रधान है, ब्रह्म मही,
रहे ब्रह्म में भाव समत्व किये

जिन हर्ष न शोक न संशय है,
उद्वेग विहीन भये जन जो.
तिन ब्रह्म में एकीभाव बसे,
अस अस्थिर बुद्धि भये जन जो

नाहीं नैकु मोह भोगन माहीं,
तिन धन्य, दयालु मिले ताही.
पुनि धन्य परम अविनाशी सुख,
अनवरत समावै हिय माहीं

जग माहीं सकल सुख भासति जो,
सोऊ अंत में दुखन मूल बने,
अनित्य विकारन मूल महा,
सों कोऊ विवेकी नाहीं रमे

जिन देह विनाशन सों पहिले,
सब काम व् क्रोधन जीत लियो .
एही लोक तेहि जन योगी सों,
सुख पाय के जन्म पुनीत कियो

जिन अंतर्सुख अंतर्ज्योति,
और आत्मा में विश्राम करै.
तिन ब्रह्म सों एकीभाव हिया
और ब्रह्महिं पूर्ण विराम करै

जिन संशय पाप भी शेष भयौ,
सब प्रानिन के हित प्रीति घनी,
तिन ब्रह्म मिले, निर्वाण मिले,
जिन ब्रह्म सों साँची प्रीति बनी

जिन काम व् क्रोधन जीत लियो
जेहि ब्रह्म अनंत को मीत कियौ.
तिन ज्ञानी कौ परब्रह्म प्रभो,
चहुँ ओर मिले , ये प्रतीति कियौ

भृकुटी के मध्य नयन दृष्टि,
कर स्थित, नाक सों वायु कौ,
प्राण और अपान कौ सम करिकै,
रोके विषयन सों स्नायु कौ

भय इच्छा क्रोध विहीन रहे,
जिनके वश में मन बुद्धि अहे,
वे मोक्ष परायण मुक्त मुनि,
जिन इन्द्रिन जीत के सिद्ध महे

हे अर्जुन! मेरौ भक्त मोहे,
लोकन कौ महेश्वर जानत है,
बिनु स्वारथ नेह करत सबको,
अस अंतर्सुख को पावत है
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