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|रचनाकार=मृदुल कीर्ति
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तृतीयोअध्याय
अर्जुन उवाच
कबहूँ कहत निष्काम कबहूँ ,
तुम ज्ञान को श्रेय बताय रहे,
फिरि काहे बेचारे अर्जुन को,
तुम करमन घोर फँसाय रहे

इन मिश्रित वचनन सों माधव,
मोरी बुद्धि विमोहित होत घनी..
एक बात कहौ दृढ़ चित्त मना ,
कल्याण होय बनूँ सत्य धनी

श्री कृष्ण उवाच
अघ हीन पार्थ! सुनि जग मांहीं,
दुइ भांति की निष्ठा होत यथा.
ज्ञानिन की ज्ञान के योगन सौं,
योगिन की योग सौं ज्ञान प्रथा

यदि मानुष कोऊ अकरमठ हो,
निष्काम कबहूँ नहीं होवत है,
न ही करमन कौ त्यागन भर सौं
कोऊ सिद्धि सिद्धारथ होवत है

नहीं मानुष जग में छिन एकहूँ,
बिनु कर्म किये कब रही पावै,
सब आपुनि- आपुनि गुन प्रकृति
वश परवश करमन गहि पावै

कर्मेन्द्रिय को जो विमूढ़ जना,
हठ सों रोकें , मन मांहीं गहै,
मन मांही भोगन चित्त धरे
मिथ्याचारी जन ताहि कहैं

मन सों इन्द्रियन को हे अर्जुन!
वश माहीं करें जो यथारथ में,
बिनु मोह करम ही श्रेय करम,
आसक्ति न नैकु पदारथ में

सुन शास्त्र नियत आपुनि करमन ,
कौ पार्थ! करो तेरौ धरम यही.
बिनु करम निबाह न देहन कौ,
बिनु करम सों तो कछु करम सही

अतिरिक्त यज्ञ के सबहीं करम,
बहु भांति मनुज को बाँधत हैं,
बिनु मोह करम जो ब्रह्म हेतु,
सत रूप जनम कौ साधत हैं

अति आदि में कल्प, प्रजा पति ने,
यज्ञ के संग प्रजा को रच्यो.
इच्छित फल वृद्धि सबहीं पावौ
वरदान दियो आशीष कहयो

करें यज्ञ सों देवन की वृद्धि,
और देवहूँ वृद्धि करें सबकी.
यही भांति परस्पर वृद्धिं सों
कल्यान समृद्धिंन हों सबकी

जिन देवन यज्ञ सों वृद्धि भई
वे आपु ही श्री को बढ़ावत हैं.
जो देवन अंश दिए बिनु ही
करैं भोग वे चोर कहावत हैं

यज्ञ सों अन्न बचो तेहि कौ,
जो खावत पाप सों छूटत है.
जो आपु बनाय के खावत सों
जन पाप खाय के जीवत है

प्राणी सब अन्न सों उपजत हैं,
और अन्न है उपजत वृष्टि सों,
अथ वृष्टि यज्ञ सों होत यथा,
और यज्ञ करम शुभ वृति सों

सब करम ही वेद सों उपजत हैं
और वेद अमर परमेश्वर सों.
अथ यज्ञ में व्यापक ब्रह्म बस्यो
ब्रह्माण्ड बन्यो अखिलेश्वेर सों

हे पार्थ! जो मानुष यही जग में,
विधि शास्त्र नियम बरतत नांहीं,
वे इन्द्रिय सुख भोगन हारे,
अघ आयु बिरथ जीवन नाहीं

जिन तृप्त आतमा में हुइ के,
आतम तृप्ति संतुष्ट रहै ,
और आतमा में ही प्रीति करै,
ताको न कोऊ कर्त्तव्य रहै

ना कोऊ प्रयोजन अस जन कौ,
कोऊ करमन और अकरमन में.
नाहीं स्वारथ कौ सम्बन्ध कोऊ,
संसार सकल के प्रानिन में

सों अर्जुन !करी कर्त्तव्य करम ,
निष्काम, प्रभु को धारे हिया.
बिनु मोह करम निरमोही मन,
जिनके, समुझौ प्रभु पाय लिया

बिनु मोह करम ज्ञानी जन भी,
करिहै, पइहैं तब सिद्धि मही.
सों लोक कौ संग्रह देखत भये
करी करम हे अर्जुन! योग्य यही

जो साधू जना जग मांहीं करैं ,
तस अन्य जना बरताव करैं.
जन साधू प्रमान बनावत जो ,
तस ही बरताव सुभाव धरैं
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