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पाँच के सुख-दुख नहीं उद्देश्य केवल मात्र थे!<br><br>
::और भी ठे थे भाव उनके हृदय में,<br>::स्वार्थ के, नरता, कि जलते शौर्य के;<br>::खींच कर जिसने उन्हें आगे किया,<br>::हेतु उस आवेश का था और भी।<br><br>
युद्ध का उन्माद संक्रमशील है,<br>
दौड़ती, हँसती, उबलती आग चारों ओर से।<br><br>
::और तब रहता कहाँ अवकाश है<br>::तत्त्वचिन्तन का, गंभीर विचार का?<br>::युद्ध की लपटें चुनौती भेजतीं<br>::प्राणमय नर में छिपे शार्दूल को।<br><br>
युद्ध की ललकार सुन प्रतिशोध से<br>
आ स्वयं तलवार जाती हाथ में।<br><br>
::रुग्ण होना चाहता कोई नहीं,<br>::रोग लेकिन आ गया जब पास हो,<br>::तिक्त ओषधि के सिवा उपचार क्या?<br>::शमित होगा वह नहीं मिष्टान्न से।<br><br>
है मृषा तेरे हृदय की जल्पना,<br>
जो स्वयं ही पुण्य हो या पाप हो।<br><br>
::सत्य ही भगवान ने उस दिन कहा,<br>::'मुख्य है कर्त्ता-हृदय की भावना,<br>::मुख्य है यह भाव, जीवन-युद्ध में<br>::भिन्न हम कितना रहे निज कर्म से।'<br><br>
औ' समर तो और भी अपवाद है,<br>
आ गया हो द्वार पर ललकारता।<br><br>
::है बहुत देखा-सुना मैंने मगर,<br>::भेद खुल पाया न धर्माधर्म का,<br>::आज तक ऐसा कि रेखा खींच कर<br>::बाँट दूँ मैं पुण्य औ' पाप को।<br><br>
जानता हूँ किन्तु, जीने के लिए<br>
जो खड़ा होता ज्वलित प्रतिशोध पर।<br><br>
::छीनता हो सत्व कोई, और तू<br>::त्याग-तप के काम ले यह पाप है।<br>::पुण्य है विच्छिन्न कर देना उसे<br>::बढ रहा तेरी तरफ जो हाथ हो।<br><br>
बद्ध, विदलित और साधनहीन को<br>
वह पुरुष, जिसकी भुजा में शक्ति हो?<br><br>
::युद्ध को तुम निन्द्य कहते हो, मगर,<br>::जब तलक हैं उठ रहीं चिनगारियाँ<br>::भिन्न स्वर्थों के कुलिश-संघर्ष की,<br>::युद्ध तब तक विश्व में अनिवार्य है।<br><br>
और जो अनिवार्य है, उसके लिए<br>
फूटती निश्चय किसी भी व्याज से।<br><br>
::पाण्डवों के भिक्षु होने से कभी<br>::रुक न सकता था सहज विस्फोट यह<br>::ध्वंस से सिर मारने को थे तुले<br>::ग्रह-उपग्रह क्रुद्ध चारों ओर के।<br><br>
धर्म का है एक और रहस्य भी,<br>
हूँ खड़ा, पर जा रहा हूँ विश्व से।<br><br>
::व्यक्ति का है धर्म तप, करुणा, क्षमा,<br>::व्यक्ति की शोभा विनय भी, त्याग भी,<br>::किन्तु, उठता प्रश्न जब समुदाय का,<br>::भूलना पड़ता हमें तप-त्याग को। <br><br>