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लेखक: [[गोपालदास "नीरज"]]{{KKGlobal}}[[Category:कविताएँ]]{{KKRachna[[Category:|रचनाकार=गोपालदास "नीरज"]]|संग्रह=}}<poem>तुम दीवाली बनकर जग का तम दूर करो,मैं होली बनकर बिछड़े हृदय मिलाऊंगा!
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~सूनी है मांग निशा की चंदा उगा नहींहर द्वार पड़ा खामोश सवेरा रूठ गया,है गगन विकल, आ गया सितारों का पतझरतम ऎसा है कि उजाले का दिल टूट गया,तुम जाओ घर-घर दीपक बनकर मुस्काओमैं भाल-भाल पर कुंकुम बन लग जाऊंगा!
तुम दीवाली बनकर जग का तम दूर करो,<br>मैं होली बनकर बिछड़े हृदय मिलाऊंगा!<br><br>
सूनी है मांग निशा की चंदा उगा नहीं<br>कर रहा नृत्य विध्वंस, सृजन के थके चरण,हर द्वार पड़ा खामोश सवेरा रूठ गयासंस्कृति की इति हो रही, क्रुद्व हैं दुर्वासा,<br>है गगन विकलबिक रही द्रौपदी नग्न खड़ी चौराहे पर, आ गया सितारों का पतझर<br>तम ऎसा है कि उजाले का दिल टूट गयापढ रहा किन्तु साहित्य सितारों की भाषा,<br>तुम जाओ घर-घर गाकर दीपक बनकर मुस्काओ<br>राग जगा दो मुर्दों कोमैं भाल-भाल पर कुंकुम बन लग जाऊंगाजीवित को जीने का अर्थ बताऊंगा!<br><br>
तुम दीवाली बनकर जग का तम दूर करो,<br>मैं होली बनकर बिछड़े हृदय मिलाऊंगा!<br><br>
कर रहा नृत्य विध्वंस, सृजन के थके चरण,<br>इस कदर बढ रही है बेबसी बहारों कीसंस्कृति की इति फूलों को मुस्काना तक मना हो रहीगया है, क्रुद्व हैं दुर्वासा,<br>बिक इस तरह हो रही द्रौपदी नग्न खड़ी चौराहे पर,<br>है पशुता की पशु-क्रीड़ापढ रहा किन्तु साहित्य सितारों की भाषालगता है दुनिया से इन्सान खो गया है,<br>तुम गाकर दीपक राग जगा दो मुर्दों जाओ भटकों को<br>रास्ता बता आओमैं जीवित इतिहास को जीने का अर्थ बताऊंगानये सफे दे जाऊंगा!<br><br>
तुम दीवाली बनकर जग का तम दूर करो,<br>मैं होली बनकर बिछड़े हृदय मिलाऊंगा!<br><br>
इस कदर बढ रही है बेबसी बहारों मैं देख रहा नन्दन सी चन्दन बगिया में,रक्त के बीज फिर बोने की<br>फूलों को मुस्काना तक मना हो गया तैयारी है,<br>इस तरह हो रही है पशुता मैं देख रहा परिमल पराग की पशु-क्रीड़ा<br>छाया मेंलगता है दुनिया से इन्सान खो गया उड़ कर आ बैठी फिर कोई चिन्गारी है,<br>पीने को यह सब आग बनो यदि तुम जाओ भटकों को रास्ता बता आओ<br>सावनमैं इतिहास को नये सफे दे जाऊंगातलवारों से मेघ-मल्हार गवाऊंगा!<br><br>
तुम दीवाली बनकर जग का तम दूर करो,<br>मैं होली बनकर बिछड़े हृदय मिलाऊंगा!<br><br>
मैं देख रहा नन्दन सी चन्दन बगिया में,<br>जब खेल रही है सारी धरती लहरों सेरक्त के बीज फिर बोने की तैयारी तब कब तक तट पर अपना रहना सम्भव है,<br>!मैं देख संसार जल रहा परिमल पराग है जब दुख की छाया ज्वाला में<br>उड़ कर आ बैठी फिर कोई चिन्गारी तब कैसे अपने सुख को सहना सम्भव है,<br>!पीने को यह सब आग बनो यदि तुम सावन<br>मिटते मानव और मानवता की रक्षा मेंप्रिय! तुम भी मिट जाना, मैं तलवारों से मेघ-मल्हार गवाऊंगाभी मिट जाऊंगा!<br><br>
तुम दीवाली बनकर जग का तम दूर करो,<br>मैं होली बनकर बिछड़े हृदय मिलाऊंगा!<br><br> जब खेल रही है सारी धरती लहरों से<br>तब कब तक तट पर अपना रहना सम्भव है!<br>संसार जल रहा है जब दुख की ज्वाला में<br>तब कैसे अपने सुख को सहना सम्भव है!<br>मिटते मानव और मानवता की रक्षा में<br>प्रिय! तुम भी मिट जाना, मैं भी मिट जाऊंगा!<br><br> तुम दीवाली बनकर जग का तम दूर करो,<br>मैं होली बनकर बिछड़े हृदय मिलाऊंगा!<br><br/poem>