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|संग्रह=मुझसे छीन ली गई मेरी नदी / अग्निशेखर
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घाव की तरह
छायाओं की तरह झाँकते हैं चेहरे हर तरफ़
फैल रहा है बर्फ़ानी ठंड में शोर
हमारी ःअड्डीयों हड्डीयों की सुरंग में घुसने को मचलता हुआ
गालियाँ, कोसने, धमकियाँ
कितना-कुछ सुन रहे हैं हम