|संग्रह=आँगन के पार द्वार / अज्ञेय
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बना दे चितेरे,
मेरे लिए एक चित्र बना दे।
बना दे चितेरेपहले सागर आँक : विस्तीर्ण प्रगाढ़ नीला, <br>मेरे लिए एक चित्र बना दे।<br><br>ऊपर हलचल से भरा, पवन के थपेड़ों से आहत, शत-शत तरंगों से उद्वेलित, फेनोर्मियों से टूटा हुआ, किन्तु प्रत्येक टूटन में अपार शोभा लिये हुए, चंचल उत्कृष्ट, -जैसे जीवन। हाँ, पहले सागर आँक : नीचे अगाध, अथाह, असंख्य दबावों, तनावों, खींचों और मरोड़ों को अपनी द्रव एकरूपता में समेटे हुए, असंख्य गतियों और प्रवाहों को अपने अखण्ड स्थैर्य में समाहित किये हुए स्वायत्त, अचंचल -जैसे जीवन....
पहले सागर आँक कर फिर आँक एक उछली हुई मछली :<br>विस्तीर्ण प्रगाढ़ नीला,<br>ऊपर अधर में जहाँ ऊपर भी अगाध नीलिमा है तरंगोर्मियाँ हैं, हलचल से भराऔर टूटन है,<br>पवन के थपेड़ों से आहतद्रव है,<br>दबाव है शत-शत तरंगों से उद्वेलित,<br>और उसे घेरे हुए वह अविकल सूक्ष्मता है फेनोर्मियों से टूटा हुआ, <br>जिस में सब आन्दोलन स्थिर और समाहित होते हैं; किन्तु प्रत्येक टूटन ऊपर अधर में <br> अपार शोभा लिये हुए, <br>हवा का एक बुलबुला-भर पीने को चंचल उत्कृष्ट,<br>उछली हुई मछली जिसकी मरोड़ी हुई देह-जैसे जीवन।<br>हाँ, पहले सागर आँक :<br>नीचे अगाध, अथाह,<br>असंख्य दबावों, तनावों, <br>खींचों और मरोड़ों को<br>अपनी द्रव एकरूपता वल्ली में समेटे हुए,<br> असंख्य गतियों और प्रवाहों को <br>उसकी जिजीविषा की उत्कट आतुरता मुखर है। अपने अखण्ड स्थैर्य जैसे तडिल्लता में समाहित किये हुए<br>दो बादलों के बीच के खिंचाव सब कौंध जाते हैं- स्वायत्तवज्र अनजाने,<br>अप्रसूत, असन्धीत सब अचंचल<br>-जैसे जीवन....<br><br>गल जाते हैं।
सागर आँक कर फिर आँक उस प्राणों का एक उछली हुई मछली :<br>बुलबुला-भर पी लेने को- ऊपर अधर उस अनन्त नीलिमा पर छाये रहते ही जिस में<br>जहाँ ऊपर भी अगाध नीलिमा वह जनमी है<br>तरंगोर्मियाँ हैं, हलचल और टूटन जियी है,<br>द्रव पली है, दबाव है <br>जियेगी, और उसे घेरे हुए वह अविकल सूक्ष्मता है<br>उस दूसरी अनन्त प्रगाढ़ नीलिमा की ओर जिस में सब आन्दोलन स्थिर और समाहित होते हैं;<br>ऊपर अधर में <br>हवा का एक बुलबुला-भर पीने को <br>विद्युल्लता की कौंध की तरह अपनी इयत्ता की सारी आकुल तड़प के साथ उछली हुई मछली <br>जिसकी मरोड़ी हुई देह-वल्ली में <br>उसकी जिजीविषा की उत्कट आतुरता मुखर है।<br>जैसे तडिल्लता में दो बादलों के बीच के खिंचाव सब कौंध जाते हैं-<br>वज्र अनजाने, अप्रसूत, असन्धीत सब <br>गल जाते हैं।<br>एक अकेली मछली।
उस प्राणों का एक बुलबुला-भर पी लेने को-<br>उस अनन्त नीलिमा पर छाये रहते ही<br>जिस में वह जनमी है, जियी है, पली है, जियेगी,<br>उस दूसरी अनन्त प्रगाढ़ नीलिमा की ओर <br>विद्युल्लता की कौंध की तरह<br>अपनी इयत्ता की सारी आकुल तड़प के साथ उछली हुई<br>एक अकेली मछली।<br><br> बना दे, चितेरे, <br> यह चित्र मेरे लिए आँक दे।<br>मिट्टी की बनी, पानी से सिंची, प्राणाकाश की प्यासी<br>उस अन्तहीन उदीषा को <br> तू अन्तहीन काल के लिए फलक पर टाँक दे-<br>क्योंकि यह माँग मेरी, मेरी, मेरी है कि प्राणों के<br>एक जिस बुलबुले की ओर मैं हुआ हूँ उदग्र, वह <br> अन्तहीन काल तक मुझे खींचता रहे :<br>मैं उदग्र ही बना रहूँ कि <br> -जाने कब-<br>वह मुझे सोख ले <br><br/poem>