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|रचनाकार=अरुण कमल
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(नज़ीर अक़बराबादी के प्रति)
न वहाँ छतरी थी न घेरा
बस एक क़ब्र थी मिट्टी से उठती
मानों कोई सो गया हो लेटे-लेटे
जिस पर उतनी ही धूप पड़ती जितनी बाकी धरती पर
उतनी ही ओस और बारिश
और दो पेड़ थे आसपास बेरी और नीम के|
और वो सब कुछ सुनता<br>एक-एक तलवे की धड़कन एक कीड़े की हरकत<br>हर रेशे का भीतर ख़ाक में सरकना<br>और ऊपर उड़ते पतंगों की सिहरन<br>हर बधावे हर मातम में शामिल|<br><br>
वह महज़ एक क़ब्र थी एक शायर की क़ब्र<br>जहाँ हर बसंत में लगते हैं मेले<br>जहाँ दो पेड़ हैं पास-पास बेरी के नीम के| <br><br/poem>