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वे और हम / अरुण कमल

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|संग्रह = अपनी केवल धार / अरुण कमल
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कितने आज़ाद हैं वे लोग
 
जो रीठे के खोल में सूखी गुठली-सा
 
बज रहे हैं लगातार निर्द्वन्द्व
 
उन्हें छूएगी कौन हवा
 
उन्हें कहे कौन कि एक हाथ है बाहर
 
जो उन्हें बजाता है बार-बार
 
उन्हें कहे कौन की गति उनकी
 
उसी अदृश्य हाथ की गति है ।
 
मैं कहाँ हूँ उतना आज़ाद
 
मै उतना ही बँधा हूँ जितना आज़ाद
 
मैं गर्भ में पलते बच्चे-सा
 
बँधा हूँ
 
आज़ाद हूँ
 
मुझमें साँस बन रही है हर हवा ।
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