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{{KKRachna
|रचनाकार=महादेवी वर्मा
|संग्रह=रश्मि / महादेवी वर्मा; आत्मिका / महादेवी वर्मा
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<poem>तुम हो विधु के बिम्ब और मैं<br>मुग्धा रश्मि अजान,<br>जिसे खींच लाते अस्थिर कर<br>कौतूहल के बाण !<br><br>
कलियों के मधुप्यालों से जो<br>करती मदिरा पान,<br>झाँक, जला देती नीड़ों में<br>दीपक सी मुस्कान।<br><br>
लोल तरंगों के तालों पर<br>करती बेसुध लास,<br>फैलातीं तम के रहस्य पर<br>आलिंगन का पाश।<br><br>
ओस धुले पथ में छिप तेरा<br>जब आता आह्वान,<br>भूल अधूरा खेल तुम्हीं में<br>होता अन्तर्धान !<br><br>
तुम अनन्त जलराशि उर्म्मि मैं<br>चंचल सी अवदात,<br>अनिल-निपीड़ित जा गिरती जो<br>कूलों पर अज्ञात;<br><br>
हिम-शीतल अधरों से छूकर<br><br> तप्त कणों की प्यास,<br>बिखराती मंजुल मोती से<br>बुद्बुद में उल्लास,<br><br>
देख तुम्हें निस्तब्ध निशा में<br>करते अनुसन्धान,<br>श्रांत तुम्हीं में सो जाते जा<br>जिसके बालक प्राण !<br><br>
तम परिचित ऋतुराज मूक मैं<br>मधु-श्री कोमलगात,<br>अभिमंत्रित कर जिसे सुलाती<br>आ तुषार की रात;<br><br>
पीत पल्लवों में सुन तेरी<br>पद्ध्वनि उठती जाग,<br>फूट फूट पड़ता किसलय मिस<br>चिरसंचित अनुराग;<br><br>
मुखरित कर देता मानस-पिक<br>तेरा चितवन-प्रात;<br>छू मादक निःश्वास पुलक—<br>उठते रोओं से पात !<br><br>
फूलों में मधु से लिखती जो<br>मधुघड़ियों के नाम,<br>भर देती प्रभात का अंचल<br>सौरभ से बिन दाम;<br><br>
‘मधु जाता अलि’ जब कह जाती<br>आ संतप्त बयार,<br>मिल तुझमें उड़ जाता जिसका<br>जागृति का संसार !<br><br>
स्वर लहरी मैं मधुर स्वप्न की<br>तुम निद्रा के तार,<br>जिसमें होता इस जीवन का<br>उपक्रम उपसंहार;<br><br>
पलकों से पलकों पर उड़कर<br>तितली सी अम्लान,<br>निद्रित जग पर बुन देती जो<br>लय का एक वितान;<br><br>
मानस-दोलों में सोती शिशु<br>इच्छाएँ अनजान,<br>उन्हें उड़ा देती नभ में दे<br>द्रुत पंखों का दान !<br><br>
सुखदुख की मरकत-प्याली से<br>मधु-अतीत कर पान, <br> मादकता की आभा से छा<br>लेती तम के प्राण;<br><br>
जिसकी साँसे छू हो जाता<br>छाया जग वपुमान,<br>शून्य निशा में भटके फिरते<br>सुधि के मधुर विहान;<br><br>
इन्द्रधनुष के रंगो से भर<br>धुँधले चित्र अपार,<br>देती रहती चिर रहस्यमय<br>भावों को आकार !<br><br>
जब अपना संगीत सुलाते<br> थक वीणा के तार,<br>धुल जाता उसका प्रभात के<br>कुहरे सा संसार !<br><br>
फूलों पर नीरव रजनी के <br> शून्य पलों के भार,<br>पानी करते रहते जिसके<br>मोती के उपहार;<br><br>
जब समीर-यानों पर उड़ते<br>मेघों के लघु बाल,<br>उनके पथ पर जो बुन देता<br>मृदु आभा के जाल;<br><br>
जो रहता तम के मानस से<br>ज्यों पीड़ा का दाग,<br>आलोकित करता दीपक सा़<br>अन्तर्हित अनुराग।<br><br>
जब प्रभात में मिट जाता<br>छाया का कारागार,<br>मिल दिन में असीम हो जाता<br>जिसका लघु आकार;<br><br>
मैं तुमसे हूँ एक, एक हैं<br>जैसे रश्मि प्रकाश;<br>मैं तुमसे हूँ भिन्न, भिन्न ज्यों<br>घन से तड़ित्-विलास;<br><br>
मुझे बाँधने आते हो लघु<br>सीमा में चुपचाप,<br>कर पाओगे भिन्न कभी क्या<br>
ज्वाला से उत्ताप ?
</poem>